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उस्ताद इमरत खान: सुर से बहार का अलग हो जाना

किसी भी कलाकार का निधन अपने साथ एक लंबी परंपरा और संगीत के संस्कार अपने साथ ले जाता है…ऐसे संस्कार जिनकी जड़े कई सौ वर्षों पुरानी हो। सितार व सुरबहार वादक उस्ताद इमरत खान साहब का इंतकाल हो जाने से निश्चित रुप से भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए यह अपूरणीय क्षति है परंतु जिस प्रकार से एक बगावती कलाकार की मानिंद उन्होंने पद्मश्री लेने से इंकार कर दिया था वह प्रश्न अब भी वही है।

उस्ताद इमरत खान साहब याने उस्ताद विलायत खान साहब के छोटे भाई। इमदादखानी सितार वादन याने इमरत खान साहब के दादाजी के नाम पर यह घराना है जिसमें सितार वादन की लोकप्रिय शैली को अपनाया गया जो कि काफी प्रसिद्ध भी हुई।

उस्ताद इमरत खान साहब ने अपने सितार वादन को सुरबहार की ओर ले गए और सुरबहार के गहरे और गंभीर सुरों को उन्होंने आत्मसात किया। अब घर पर जब सभी संगीत में लीन हो तब जाने अनजाने में संगीत के सुर अपना कमाल कर ही जाते है। सुरों के लिए प्रशिक्षित कान तो थे ही बस अब अपनी कल्पनाओं को आकार देना था और सुरबहार और सितार के माध्यम से उसे लोगो तक पहुंचाना था। कोलकाता में जन्में इमरत खान साहब ने शुरुआती दौर में ध्रुपद अंग से सुरबहार को बजाया। इसके कारण उनके वादन में अलग ही निखार आया। उन्होंने अपनी आलपचारी को अलग ही रंग ध्रुपद के माध्यम से ही दिया। पचास के दशक में इमरत खान साहब और विलायत खान साहब दोनों ही मंच पर एक साथ प्रस्तुति दिया करते थे। उनके कार्यक्रमों की काफी प्रशंसा भी हुआ करती थी परंतु 1960 के बाद से उन्होंने अपनी अलग राह पकड़ी और सुरबहार और सितार पर वे एकल प्रस्तुतियां ही देने लगे। इमरत खान साहब ने विदेश की रह पकड़ी और वे अमेरिका सहित कई देशों में लगातार प्रस्तुतियां देने लगे। भारतीय शास्त्रीय संगीत की कई श्रृंखला प्रस्तुतियों में वे महीनों तक कार्यक्रम देने के लिए विदेश में ही रहते थे। सेंट लुईस वाशिंगटन युनिवर्सिटी में उन्होंने वर्षों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण दिया।

इमरत खान साहब एलपी से सीड़ी तक के जमाने के कलाकार थे जिन्होंने लगातार कई रेकार्डिंग्स की और अपने संगीत को अमर बना दिया। विदेशों में रहने के कारण वे अपने संगीत को नए लोगो तक पहुंचाने में कामयाब रहे। उन्होंने संपूर्ण जीवन संगीत के लिए लगा दिया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, उस्ताद अमदजान थिरकवा और पं व्ही.जी जोग जैसे कलाकारों के साथ मंच पर प्रस्तुति दे चुके इमरत खान साहब के राग यमन,राग जोग काफी प्रसिद्ध रहे है।

पद्मश्री लेने से इंकार कर दिया था

इमरत खान साहब को संगीत नाटक अकादमी अवार्ड प्रदान किया गया था, परंतु जब पद्मश्री अवार्ड घोषित हुआ तब वे नाराज हो गए और उनका नाराज होना वाजिब भी था। उनका कहना था कि सरकार ने काफी देर कर दी जबकि उनके काफी जुनियर कलाकारों को सरकार पद्मश्री दे रही थी। दरअसल संगीत में पद्म पुरस्कारों को लेकर इसके बाद ही बहस चल पड़ी थी जो अब भी जारी है।

सरकार भारतीय शास्त्रीय संगीत में पद्म पुरस्कार किसी भी कलाकार को इतनी देरी से क्यों देती है ? जब कलाकार सत्तर और अस्सी पार हो जाता है तब उसे इस पुरस्कार के लायक क्यों समझा जाता है जबकि अन्य विद्याओं में जैसे खेलों में काफी पहले ही यह पुरस्कार दिए जाते है। मान लिया जाए कि खेलों में कम उम्र में ही पुरस्कार दे सकते है क्योंकि एक खिलाड़ी के लिए अच्छे से खेलने के लिए काफी कम उम्र होती है परंतु सरकार भारतीय शास्त्रीय संगीत में कलाकार के बिल्कुल बुढ़े हो जाने पर ही पुरस्कार क्यों देती है? इमरत खान साहब के इस प्रकार के प्रश्न उठाने के पीछे उनका दर्द यह था कि उन् होंने वर्षों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत को अपना सबकुछ दिया और उसे विदेशों में लोकप्रिय बनाने का भरपूर प्रयास किया और कई शिष्य तैयार किए। ऐसे में क्या सरकार ने उन्हें पद्म पुरस्कार देने में बहुत ज्यादा देर नहीं कर दी? पुरस्कार लेने से मना करने पर इमरत खान साहब को लेकर कई कलाकारों ने भी साफ कहा था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को लेकर सरकार को अपना रवैया बदलना चाहिए। इमरत खान साहब…. महान सितार वादक स्व पं रविशंकर को लेकर भी सम्मान का भाव रखते थे। पंडित जी के निधन के बाद उन्होंने भावपूर्ण पत्र भी लिखा था और यह भी कहा था कि उनके बेटे पर पंडित जी ने सदा आशीर्वाद बनाएं रखा।

निश्चित रुप से इमरत खान साहब के जाने से सितार और सुबहार की एक ऐसी पीढ़ी का अंत हुआ है जिन्होंने अपना सर्वस्व संगीत के लिए लगा दिया था और जिनके लिए जीवन में संगीत के अलावा कुछ नहीं था। साथ ही पद्म पुरस्कारों के लिए उनके द्वारा उठाए गए प्रश्न पुन: जिंदा हो गए है।

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