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जीवन कुछ और नहीं, बल्कि नर्तन है!

पाषाण युग में मनुष्य ने बोलना नहीं सीखा था.. यह तो सभी जानते हैं। तब गुफाओं पर चित्र उकेर कर वह अपनी बात कहता था.. यह भी सबको पता है। लेकिन पाषाण युग के प्रारंभ में जब वह चित्र उकेरने की कला से भी अवगत नहीं था तब वह अपना संभाषण कैसे करता होगा? तब वह इशारों में बातें किया करता था… इसके लिए वह अपने शरीर को माध्यम बनाता था। शरीर के अंग जैसे ‘सिर’, ‘आँखें’, ‘गर्दन’, ‘हाथ’ और ‘पैर’… उसे अभिव्यक्त करने में मदद करते थे। शरीर के इन्हीं अंगों का विचार नृत्य के संबंध में करें तो नर्तक/ नर्तकियों के लिए नित्योपयोगी अंग-प्रत्यंगों को चुनकर केवल उन्हीं का लक्षण-विनियोग करते हैं तो इन्हें हम- ‘शिर’, ‘दृष्टि’, ‘ग्रीवा’, ‘हस्त’ एवं ‘पाद’ के रूप में देखते हैं। अर्थात् नृत्य तो मनुष्य के साथ प्रागैतिहासिक काल से जुड़ा है, जो आम बोलचाल में ‘सिर’ है और अभिनय दर्पण में ‘शिर’…। इसका सीधा अर्थ यह भी है कि नृत्य हमारे भीतर है, बस! उस लय को पकड़ लेने की बात है।

आचार्य नंदिकेश्वर नृत्य में अभिनय की ही प्रधानता पर बल देते हैं। अभिनय के चार प्रकार आंगिक, वाचिक, आहार्य एवं सात्विक हैं, जिसमें आंगिक अभिनय के साधन अंग, उपांग और प्रत्यंग हैं। भरत मुनि 13 शिरोभेद बताते हैं, दृष्टि भेद का आधार रस भाव मानते हुए वे 36 दृष्टि भेदों का वर्णन करते हैं, उनके भरत नाट्य शास्त्र में 9 प्रकार के ग्रीवा भेद बताए गए हैं, नाट्य शास्त्र में 24 असंयुक्त, 13 संयुक्त और 30 नृत्त हस्त बताए गए हैं, भरत मुनि ने प्रारंभिक स्तर पर पाँच पाद कर्म बताए हैं। यदि हम केवल हस्त मुद्राओं या कर भावों पर ही केंद्रित रहें तब भी हम समझ सकते हैं कि रोजमर्रा के जीवन में भी हम नृत्य के कितने करीब हैं और यदि उसे समझ लिया जो जीवन कितना लयबद्ध हो जाएगा। तंत्र शास्त्रों में कहा गया है कि ‘मुद्रा हाथों की वह भंगिमा विशेष है, जिससे देवता प्रसन्न होते हैं और उपासक काम-क्रोधादि से मुक्त हो जाता है’।

भारत की विभिन्न नृत्य शैलियों के अपने सिद्धांतानुसार भरत नाट्य शास्त्र पर केंद्रित कई अलग ग्रंथ हैं जो इन मुद्राओं को नृत्य की भाषा में वर्णमाला के समान महत्व देते हैं। अभिनय दर्पण में वर्णित विभिन्न हस्त मुद्राएँ हमारे जीवन में इस तरह आती हैं कि आप भी कहेंगे कि जीवन कुछ और नहीं, बल्कि नर्तन है। हस्तभेद में जो एक हाथ से बनते हैं उन्हें असंयुक्त और जो दोनों हाथों से मिलकर बनते हैं उन्हें संयुक्त मुद्रा कहते हैं। पताका, त्रिपताका, अर्ध पताका, कर्तरीमुख, मयूर, अर्धचंद्र, अराल, आदि असंयुक्त हस्त हैं, जबकि अभिनय हेतु संयुक्त हस्त अंजली, कपोत, कर्कट, स्वस्तिक, डोलाहस्त, पुष्पपुट आदि हैं। भारतीय नृत्यों में आधुनिक युग में इन हाथ या हाथों की भंगिमाओं को मुद्रा कहा जाता है और नृत्य के विद्यार्थी इनसे भली-भाँति परिचित हैं।

पहले असंयुक्त हस्त की बात करते हैं। एक हाथ की सभी अँगुलियाँ सीधी फैलाकर उनके पोरों को थोड़ा झुका देने और अँगूठे को मोड़कर तर्जनी के मूल में स्थित कर देने से यह मुद्रा बनती है। नाट्यारंभ में इस मुद्रा का प्रयोग किया जाता है, लेकिन आप-मैं, हम सभी इस मुद्रा का उपयोग किसी वस्तु को छूने, आशीष देने, प्रवेश (आइए कहते हुए), चुप रहने, दया का भाव दिखाने, यहाँ-वहाँ दिखाने, शपथ लेने, समता आदि के भाव प्रदर्शन के दौरान अनायास करते हैं।

इसी पताका हस्त मुद्रा में जब अनामिका अँगुली झुका दी जाती है तो वह त्रिपताका बनती है। नृत्य में मुकुट, दीपक, अग्नि की ज्वाला, कबूतर, बाण आदि के प्रदर्शन में इसका उपयोग किया जाता है। त्रिपताका मुद्रा में कनिष्ठिका अंगुली को झुका देने से वह अर्ध पताका मुद्रा बनती है। दोनों कहने के लिए केवल नृत्य में ही नहीं आम जीवन में भी इसका उपयोग हमेशा किया जाता है।

कर्तरीमुख, मयूर के बाद आती है अर्धचंद्र मुद्रा जिसे पताका मुद्रा में अँगूठा फैलाकर दिखाया जाता है। हाथ से गला पकड़ना, देवताओं का अभिषेक, भोजन का पात्र, कटि, अंगों का स्पर्श, पूर्वजों को प्रणाम आदि के भाव आपने भी इसी मुद्रा से दिखाए होंगे।

अराल, शुक तुंड के बाद जब चारों अंगुलियों को हथेली में टिकाकर ऊपर से अँगूठा रख दिया जाता है तो मुष्टि मुद्रा बनती है। ‘बंद मुट्ठी (आप यहाँ मुष्टि कह लीजिए) लाख की, खुल गई तो खाक की’… आपने इस कहावत को तो जाना ही होगा। नृत्य में इसका प्रयोजन गाल पकड़ने, वस्तु उठाने, मल्लों का युद्ध आदि भावों के प्रदर्शन के लिए है, नृत्य से दीगर भी तो इन भावों को हम आम जीवन में इसी तरह करके दिखाते हैं, है न?

मुष्टि मुद्रा में अँगूठा सीधा कर दिया तो शिखर मुद्रा बनती है। दृढ़ निश्चय करते हुए आपने भी इसका प्रयोग किया होगा। शिखर मुद्रा में तर्जनी अँगुली को मोड़कर उसे अँगूठे के ऊपर रखने से कपित्थ मुद्रा बनती है। आँचल या घूँघट, फूल पकड़ने में आपने इस मुद्रा का प्रयोग देखा होगा। नृत्य में लक्ष्मी, सरस्वती को दिखाने में इसका प्रयोग होता है।

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कपित्थ हस्त में तर्जनी के साथ मध्यमा अँगुली को भी अँगूठे पर टिका दें तो कटकामुख मुद्रा बनेगी। फूल तोड़ने, तांबूल प्रदान करने में इसका उपयोग देखा गया होगा और नृत्य में इसका उपयोग मोती का हार या पुष्पाहार धारण करने, वचन और दृष्टि के भाव बतलाने आदि के लिए होता है।

कटकामुख मुद्रा में तर्जनी अंगुली को सीधा कर देने पर सूची मुद्रा बनती है। जब कभी आपने एक दिखाया होगा इस मुद्रा का प्रयोग किया होगा। इसका विनियोग नृत्य की ही तरह आपने भी परब्रह्म, सूर्य, संसार,यहाँ-वहाँ कहने, मना करने आदि के लिए किया होगा।

सूची हस्त में अँगूठा खोल देने से चंद्रकला मुद्रा बनती है। आम जीवन में भी कभी इशारों में कुछ कहने का अवसर आया होगा तो आपने चाँद को इसी तरह दिखाया होगा। हाथ की समस्त अँगुलियाँ फैली हुई तथा अंदर की ओर झुकी हुई होने से पद्मकोष मुद्रा बनती है। भोजन करते हुए आपके हाथ नित्य इसी मुद्रा में तो होते हैं।

पताका हस्त में अँगुलियों को झुका देने पर सर्पशीर्ष मुद्रा बनती है। देवताओं-ऋषियों को जल चढ़ाने, घड़ा उठाने, मल्लों की भुजा बतलाने और खासकर सर्प (साँप) दिखाने के लिए आपने भी इसी मुद्रा का चयन किया होगा। सर्प शीर्ष हस्त में कनिष्ठिका व अँगूठा सीधा कर तान देने पर मृगशीर्ष मुद्रा बनती है। पैर दबाने, किसी को बुलाने (पुकारने), त्रिपुंड लगाने पर गौर कीजिएगा… यही मुद्रा रहती है। सिंहमुख, काँगूल, चतुर, भ्रमर, हंसास्य, हंस पक्ष, संदंश, मुकुल, ताम्रचूड़ इन मुद्राओं के उपयोग आप भी महसूस करेंगे। कनिष्ठिका और अँगूठे को मिलाकर शेष अंगुलियों को फैला देने पर त्रिशूल मुद्रा बनती है। आप सोचिए इसका प्रयोग आप करते हैं या नहीं? व्याघ्र के बाद आती है अर्धसूची। कपित्थ हस्त में तर्जनी अँगुली सीधी तान दी जाए तो वह अर्धसूची हस्त मुद्रा कहलाती है। इसके बाद आती है कटक और पल्ली मुद्रा।

एक हाथ से बनने वाली इन मुद्राओं के बाद दोनों हाथों के संयुक्त प्रयोग से संयुक्त हस्त बनते हैं। जिनमें से पहला है अंजली। दोनों हाथों से पताका मुद्रा बनाकर उन्हें हथेली की ओर से मिला देने पर अंजली संयुक्त हस्त मुद्रा बनती है। आपने कितनी ही बार इसका भी प्रयोग किया होगा।

कपोत, कर्कट, स्वस्तिक की मुद्रा के बाद आती है डोला मुद्रा। जब पताका मुद्रा युक्त हाथ को उरु पर रखा जाता है तो वह डोला मुद्रा होती है। नाट्यारंभ में इस मुद्रा का प्रयोग होता है और कई बार जीवन में भी आप इसी तरह खड़े रहते हैं.. अपनी बात कहते या दूसरों की बात इस मुद्रा में खड़े होकर सुनते होंगे।

दोनों हाथों से सर्पशीर्ष मुद्रा बनाकर उन्हें कनिष्ठिका अंगुली की ओर से मिला देने पर पुष्पपुट मुद्रा बनती है। इसे और ठीक से समझना हो तो हाथों से चुल्लू बनाने की क्रिया याद कीजिए.. याद कीजिए आपने इसका प्रयोग जल (पानी), फलादि ग्रहण करने, अर्घ्यदान करने तथा मंत्र पुष्पांजली के दौरान किया होगा।

दाहिनी भुजा पर बायें तथा बाईं भुजा पर दाहिने हाथ से मृगशीर्ष मुद्रा बनाकर रखने से उत्संग मुद्रा बनती है। आलिंगन में इसका प्रयोग किया जाता है। बायें हाथ से अर्धचंद्र बनाकर उस हथेली पर दाहिने हाथ से शिखर मुद्रा बनाकर आपने संयुक्त हस्त मुद्रा शिवलिंग बनाई होगी। दोनों हाथों से कटकामुख मुद्रा बनाने से कटकावर्धन मुद्रा बनती है तो दोनों हाथों से कर्तरीमुख बनाकर स्वस्तिकार रखने पर कर्तरी स्वस्तिक। दोनों हाथों से भ्रमर मुद्रा बनाकर मध्यमा व अंगूठे को फैला देने पर शकट मुद्रा बनाई होगी और राक्षस आया कहकर खेल खेला होगा।

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शंख, चक्र, सम्पुट मुद्रा का उपयोग भी आप येन-केन प्रकारेण करते होंगे। दोनों हाथों से सूची मुद्रा बनाकर उनकी तर्जनी अंगुलियों को थोड़ा अंदर की ओर झुकाकर आपस में मिला देने पर पाश हस्त बनता है। आपसी झगड़ा, साँकल (श्रृंखला) तथा पाश का भाव बताने के लिए इसका उपयोग करते हैं। कीलक, मत्स्य, कूर्म, वराह, गरुड़, नागबंध और दो पक्षियों को दिखाने के लिए भेरुण्ड का प्रयोग आपने बचपन से खेल-खेल में भी किया होगा।

भले ही ये मुद्राएँ नृत्य की सांकेतिक भाषा हों और इन्हें नृत्य की वर्णमाला कहा जाता हो लेकिन सच तो यह है कि ये हमारे जीवन में रस घोलती हैं… हमें अधिक गहरे अभिव्यक्त होने में मदद करती हैं। संस्कृत की मुद् धातु से विनिर्मित मुद्रा शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है आनंद और मुद्राओं से अभिव्यक्ति हमें आनंद देती है।

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